हर दुःख को खुद ही लेकर माँ ,कितना प्यार जताती है
बच्चों के हर ताने सहती ,माँ तब भी मुस्काती है
माँ को चाहे मदर कहो या कह दो खुशियाँ धाम
हे श्रिस्टी की प्यारी अम्मा बारम्बार प्रणाम
कुछ विडम्बना है समाज की ,बढती चिंता है जो आज की
माँ अंधियारे जीवन में जब खुद ही दीप जलाती है
फिर भी चेहरे पे खुशियाँ ले हर गम को पी जाती है
अब लफ़्ज़ों में क्या लिखूँ पाऊँ ,तुझमें बसते राम
हे श्रिस्टी में प्यारी अम्मा बारम्बार प्रणाम